Birsa Munda’s Ulgulan – The Great Rebellion that Made Him a ‘God’ | Untold Stories

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    Birsa Munda latest news
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    महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी अपने उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में भगवान बिरसा मुंडा के बारे में कुछ इस तरह से लिखती हैं—  “सुगना मुंडा का 25 वर्षीय बेटा बिरसा मुंडा सवेरे आठ बजे खून की उलटी कर अचेत हो गया। एक विचाराधीन कैदी जो ब्रिटीश सरकार के हाथों 30 फरवरी को पकड़ा गया था, बावजूद इसके उस महीने के आखिरी सप्ताह तक बिरसा मुंडा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था…..हांलाकि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में बिरसा मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा मुंडा जानता था कि उसे सजा नहीं मिलेगी। डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी। वो बंद हो चुकी थी। बिरसा मुंडा नहीं मरा था, बल्कि आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था।“-Birsa Munda latest news

    आदिवासियों का संघर्ष आज से नहीं बल्कि 18वीं शताब्दी से चला रहा है। आदिवासियों को शुरू से ही जल, जंगल और जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा है। हांलाकि इसके खिलाफ आदिवासी बड़ी मुखरता से अपनी आवाज उठाते रहे हैं।  आपको जानकारी के लिए बता दें कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के ठीक 38 साल बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में उलगुलान महाविद्रोह का आगाज हुआ, जो 1895 से 1900 ई. तक चला। -Birsa Munda latest news

    ब्रिटीश सरकार द्वारा लागू जमींदारी प्रथा तथा राजस्व व्यवस्था के खिलाफ जंगल और जमीन के हक के लिए बिरसा मुंडा ने 1895 में महाविद्रोह किया। इतना ही नहीं बिरसा मुंडा ने उन सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान कर दिया ​जो कर्ज के बदले उनकी जमीनें हड़प लिया करते थे। आदिवासी लोग इन महाजनों को दिकू कहते थे। भारतीय इतिहास में उलगुलान ​केवल महाविद्रोह नहीं था बल्कि आदिवासियों की अस्मिता, स्वायत्तता और संस्कृति के अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई थी। 

    आदिवासी मुद्दों पर अपने काम के ​चर्चित साहित्यकार रमणिका गुप्ता की किताब ‘आदिवासी अस्मिता का संकट’ के मुताबिक आदिवासी क्षेत्रों में जल, जंगल और जमीनों पर किसी राजा—नवाब या फिर अंग्रेजों का नहीं बल्कि आदिवासी समाज का कब्जा था। यह सच है कि राजा अथवा नवाब उन्हें लूटते जरूर थे लेकिन उनकी संस्कृति और व्यवस्था में कभी दखल नहीं देते थे। शुरू में अंग्रेजों ने भी बहुत ज्यादा रूचि नहीं दिखाई लेकिन जब देश में ब्रिटीश सरकार ने रेलों का विस्तार करना शुरू किया तो मानभूम, संथाल परगना, सिंहभूम आदि से जुड़े जंगली इलाकों को काटने शुरू कर दिए। ऐसे में बड़े पैमाने पर आदिवासी बेघर होने लगे। फिर आदिवासी इकट्ठा हुए और मंत्रणा शुरू हुई। जब अंग्रेजों ने जमींदारी प्रथा लागू  कर आदिवासियों के जमीन को जमींदारों और दलालों में बांटकर नई राजस्व व्यवस्था लागू की तो आदिवासियों ने बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू कर दिए।  –Birsa Munda latest news

    सुगना मुंडा ने अपने बेटे बिरसा मुंडा का एडमिशन मिशनरी स्कूल में करवाया था, जहां उन्हें ईसाइयत की शिक्षा दी जा रही थी। इसलिए बिरसा ने कुछ ही दिनों में स्कूल से नाता तोड़ लिया। 1890 के आसपास बिरसा मुंडा वैष्णव धर्म की तरफ मुड़ चुके थे। मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने, बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है, ऐसे में बिरसा अब आदिवासी समाज के लिए धरती पिता बन चुके थे।

    इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 के तहत जब आदिवासियों की जमीनें छीन ली गई तब बिरसा मुंडा ने अपने समाज की बेबसी के खिलाफ हथियार उठा लिए और फिर शुरू हो गया ‘उलगुलान महाविद्रोह’। बिरसा मुंडा और उनके साथियों ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए छापामार लड़ाई का सहारा लिया। अंग्रेजों ने उन पर 500 रूपए का इनाम रखा था, उन दिनों यह बहुत बड़ी धनराशि थी। –Birsa Munda latest news

    बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी और निर्णायक लड़ाई सन 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। इस लड़ाई में बिरसा मुंडा और उनके साथी तीर-कमान और भालों से लड़ रहे थे जबकि अंग्रेजों के पास बंदूकें और तोपें थी। लिहाजा 400 मुंडा मारे गए लेकिन बिरसा हाथ नहीं आए। हांलाकि बाद में बिरसा जाति के लोगों ने ही उन्हें पकड़वा दिया।

    महाश्वेता देवी लिखती है कि ‘ उसे जंगल की धरती, महुआ का तेल, काला नमक, कंद-मूल और जंगल की शहद तथा खाने के लिए हिरन का मांस मिल जाता तो शायद बिरसा मुंडा कभी भगवान नहीं बन पाता।‘

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