After all, why was the festival of Pehla Ganesh Chaturthi necessary for the independence of our country?

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आखिर क्यों ज़रूरी था हमरे देश की independence के लिए पेहला Ganesh Chaturthi का festival

1857 में जब मंगल पाण्डेने अंग्रेज़ो के खिलाफअपनी आवाज़ उचि की ,तो मानो वह पुरे देश के कानो तक पहुंची। अब लोग अंग्रेज़ो के दमन और नाइंसाफी से तंग आ चुके थे।  अँगरेज़ समाज चुके थे की अब लोगो  को ज़्यादा देर तक काबू में रखना मुश्किल है, यदि कुछ न किया गया तो घर घर में क्रांति की ज्वाला  दहक उठेगी और उसमे ब्रिटिश राज जल के ख़तम हो जायेगा।  इसलिए  उन्होंने कूटनीति का रास्ता अपनाया। हिन्दू को मुसलमान से और दलितों को ब्राह्मणों से खूब लड़वाया। इस का असर स्वतंत्रता संग्राम पर साफ तौर पे दिखने लगा । १८९३ में जब  मुंबई में हिन्दू और मुसलमान के बीच दंगे भड़के तो उसका इन अंग्रेज़ो ने खूब फायदा उठया। 

अंग्रेज़ो की यह चाल  लोकमान्य तिलक बोहोत अच्छे से समझते थे। भारतीय एकता के आभाव के कारण  १८५७ में भी अंग्रेज़ो को हारने में  नाकामियाब हो चुके थे।  तिलक नहीं चाहते थे कि एक बार फिर से लोगों का भरोसा और हिम्मत टूटे। भारतीयों को एक जुट होने से रोकने के लिए वैसे भी अंग्रेज़ो ने रोवेल्ट एक्ट लगाया हुआ था, जिसके तहत २० से ज़्यादा लोग इकट्ठा नहीं हो सकते थे।  उन दिनों मुंबई में मोहर्रम बहुत प्रचलित था , हिन्दू भी ताजिया  में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया करते थे , हज़रत इमाम हुसैन की ताबूत को सुखरवार वाडा जीसे बाजिराव द्वितीय ने बनाया था उसमे रखा जाता था।  यहाँ तक की कर्नाटक के कुछ गांव में जहाँ  मुस्लिम आबादी थी भी नहीं वहाँ भी मोहर्रम प्रचलित था।  

परन्तु दंगे के बाद , पुणे के दुल्या मारुती मंदिर में पंढरपुर जाने वाली पालखी पर पथराव हुआ और इस वजह से हिंदुओं ने मोहर्रम में भाग लेने से इंकार कर दिया। लोकमान्य तिलक अंग्रेज़ो की इस चल से वाकिफ थे वह किसी भी हाल में हिन्दू और मुसलमानो को एक छत  के निचे लाना चाहते थे। उन दिनों उन्होंने सुना कि भाऊसाहेब  लक्ष्मण जावळे ने भाऊसाहेब रंगारी ट्रस्ट के द्वारा सार्वजनिक गणपति उत्सव का आयोजन किया है जो शिवाजी  और पेशवाओं के समय से सिर्फ घर के अंदर मनाया  जाता था। भाऊसाहेब जावळे भी एक स्वतंत्र सेनानी थे।  जब ग्वालियर में  सार्वजनिक तौर पर मनाये जाने वाले  इस त्यौहार के बारे में ग्वालियर से लौटे कृष्णाजी पंत ने जावळे को बताया तो उन्होंने ने बिल्कुल देर नहीं की और सबसे पहली बार Ganesh Chaturthi को सार्वजनिक किया।  इस उत्सव ने लोगो का ध्यान इसलिए भी खींचा क्योंकि इस उत्सव की गणपति की मूर्ति राक्षस का वध करते हुए दिखाई गई  थी  जो की अंग्रेज़ो द्वारा कीय जा रहे अत्याचारों पर सच्चाई की जित का प्रतिक था। 

जब यह बात लोकमान्य तिलक को पता चली तो ,उन्हें इसमें उम्मीद की किरण नज़र आयी. क्यूंकि गणपति को उच्च नीच से परे सबका देवता माना  जाता था। उन्होंने “केसरी”  पत्रिका में भाऊसाहेब जावळे  के इस प्रयास की काफी तारीफ भी की। अब लोकमान्यजी को राष्ट्रिय एकता का  रास्ता मिल गया था ,वह इस Ganesh Chaturthi को बड़ा सा पंडाल लगाकर  मनाने के प्रयास  में जुट गए,जहा हर जाती के लोग ख़ुशी – ख़ुशी अपने आराध्य की पूजा कर सकते थे। उनके  इस इरादे के आगे बहुत सी मुश्किलें आयी ,क्यूंकि लोकमान्य तिलक के भाषण और सामाजिक कार्य इतने प्रसिद्द थे के उनके अनुयायीयो   की भीड़ , चाहे वो किसी भी धरम के हो  बढ़ती ही जा रही थी।  इसलिए उन्हें “लोक -मान्य :” बुलाया जाता था। अंग्रेज़ यह जानते थे की यदि वह Ganesh Chaturthi को सार्वजानिक करने में सफल हो गए तो वह भारतीयों को एक करने में भी कामियाब हो जायेंगे, उसके ऊपर से कांग्रेस के कुछ नेता भी इस विचार से सहमत नहीं थे।

परन्तु लोकमान्य तिलक ने किसी की नहीं सुनी और यह उत्सव १८९३ में ही केशवजी’नायक चॉल सार्वजानिक गणेशोत्सव मंडल के तहत  बड़े से पंडाल में मनाया। क्यूंकि यहाँ लोग धार्मिक कार्य के लिए इकट्ठा हुए थे इसलिए रौलेट एक्ट भी इनका कुछ नहीं बिगाड़  पाया। लोकमान्य तिलक की यह कोशिश कामयाब हुई और गणपति पंडाल से कई मुस्लिम नेताओं ने भी भाषण दिए।इस उत्सव में सांस्कृतिक कार्यक्रम और मराठी लोकगीत के ज़रिए लोगो में देश के प्रति लगाव की भावना को बढ़ावा देने का प्रयास किया गया। इतना ही नहीं  कार्यकर्मो में बड़े -बड़े नेताओ के भाषण को सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग उमड़ आये। इन  कार्यक्रमों में ब्रिटिश विरोधी गीत, देशप्रेम की व्याख्यान  करते पर्चे गायें और बांटे जाने लगे। 

तिलक का यह प्रयास पुरे देश में प्रचलित हो गया। फिरसे भारतीयों में एकता का भाव जागने लगा। जिस उत्सव की नीव लोकमान्य तिलकजी ने आज़ादी की मुहीम को जन -जन तक पहुंचने के लिए राखी थी, वह festival आज भी एकता का प्रतिक बन देश के हर कोने में मनाया जाता है। 

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