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ज्ञानवापी मस्जिद जो वाराणसी, उत्तर प्रदेश में एक लंबे समय से चल रही कानूनी लड़ाई का हिस्सा है, और अभी अपने नए विवाद से फिर से चर्चाओं में आ गया है। आज कि इस खास वीडियो में हम करेंगे इसी पर बात।
ज्ञानवापी मस्जिद काशी विश्वनाथ मंदिर के पास स्थित है, जो भगवान शिव को समर्पित एक सबसे पवित्र हिंदू तीर्थस्थलों में से एक है। मस्जिद और मंदिर के बीच एक साझा दीवार हैं, और कुछ लोग मानते हैं कि मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी।
बरसो पुराने इस मामले का आरंभ 1937 में हुआ, जब तीन सुन्नी मुस्लिमों ने सिविल कोर्ट में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने वाराणसी में कॉम्प्लेक्स के पूरे एन्क्लोजर का उपयोग अपने धार्मिक समारोहों के लिए करने का दावा किया।
1937 में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट ने मस्जिद के ऊपरी प्लेटफॉर्म के बाहर नमाजियों के जुटने या ज्ञानवापी कॉम्प्लेक्स के अंदर प्रार्थना करने की अनुमति देने से इनकार करने के बाद यह याचिका दायर हुई थी।
मुस्लिम याचिकाकर्ताओं का मुख्य तर्क था कि अगर मस्जिद में जगह कम हो जाती है तो वे मुस्लिम पवित्र महीने रमजान के आखिरी शुक्रवार को मस्जिद के बाहर के भूभागों का उपयोग करना चाहते है।
उन्होंने कहा कि मुस्लिम अपने समारोहों के लिए संपत्ति का उपयोग कर सकते हैं, और कब्रों के पास की जमीन को साल में एक बार उपयोग में लाया जा सकता है। हालांकि, जज ने कहा कि उन्हें मस्जिद और आसपास के घरों के बीच के क्षेत्र में सामान्य रोजाना की प्रार्थना करने का कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने केवल निर्धारित क्षेत्रों में प्रार्थना करने की अनुमति दी थी , जो कि कब्रिस्तान और मस्जिद परिसर ही था।
मुस्लिम पक्ष इस निर्णय से संतुष्ट नहीं हुए थे और उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील की।
आपको बता दे कि माननीय उच्च न्यायालय ने कहा था कि मस्जिद के इतिहास में जाने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने एक 1810 का वो पत्र उल्लेखित किया। जिसे बनारस के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट ने लिखा था कि मुस्लिमों को मस्जिद के आसपास के क्षेत्र से बाहर किसी भी तरह के समारोह , प्रार्थना कि अनुमति नहीं है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दो धर्मों के बीच लगातार कलह जारी रहती है और उस दौरान के हुए दंगो का उल्लेख किया था जिनमें विवादित संपत्ति के वास्तविक मालिक के बारे में हिन्दू मुस्लिम दोनों ने हक़ बताया था।
इसके बाद 1854 के साल से विभिन्न न्यायालयों और अधिकारियों द्वारा एक अनेको आदेश हैं, जो यह दिखाते हैं कि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के अधिकारों पर अतिक्रमण करने की कोशिश कर रहे थे, उच्च न्यायालय ने तब कहा था।
अपीलकर्ताओं ने कहा कि एक बार जब जमीन को वफ्फ बोर्ड कि संपत्ति घोषित कर दिया गया, तो उसमें कुछ भी बदल या संशोधित नहीं किया जा सकता, और उन्होंने यह भी कहा कि जमीन में एक मस्जिद के साथ एक एन्क्लोजर शामिल है, इसका सबूत देने के लिए तहसील में दर्ज मालिकाना हक़ वाला दस्तावेज दिया गया।
इसपर न्यायालय ने कहा कि यह माना नहीं जा सकता कि पूरा एन्क्लोजर केवल मस्जिद को समर्पित किया गया था ना कि पुरे समुदाय के लिए।
आगे उच्च न्यायालय ने कहा कि उपलब्ध एकमात्र सबूत लगभग 18 गवाहों का मौखिक सबूत था और सिविल कोर्ट के जज से सहमत हुए कि यह कहा नहीं जा सकता कि पूरी संपत्ति वाक़फ़ संपत्ति थी। इस प्रकार, अतिरिक्त एन्क्लोजर वाक़फ़ संपत्ति था, इस तर्क को उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया।
वैसे रिवाज़ी अधिकारों पर तर्क के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि ऐसे अधिकार प्राप्त करने के लिए, यह साबित करना आवश्यक है कि अधिकार के अस्तित्व को मान्यता मिली है और यह कानून का हिस्सा बन गया है।
एक ऐसी रिवाज़ जो कानून के बराबर है, वह है जिसे उन लोगों द्वारा सामान्य रूप से मान्यता मिली हो , जिनके संबंध में यह है, या दूसरे शब्दों में, एक रिवाज़ी नियम तब कानून बन जाता है, जब यह सामान्य रूप से मान्यता प्राप्त होती है कि नियम को कुछ खास परिस्थितियों पर लागू किया जाना चाहिए न्यायालय ने कहा।
इस प्रकार, उच्च न्यायालय ने सिविल कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा और मुस्लिमों की अपील को खारिज कर दिया।
इस मामले को फिर से चर्चा में तब लाया गया है, जब एक विश्व हिंदू परिषद के नेता ने 2019 में एक नया मुकदमा दायर किया, जिसमें उन्होंने कहा कि मस्जिद को तोड़कर मंदिर को पुनर्निर्माण करने का आदेश दिया जाए।
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