दोस्तों, आपको बता दें कि हमारे देश में तमाम विपक्षी दल के नेता और होशियार लोग भारत की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था का जिक्र इस साक्ष्य के साथ जरूर करते हैं कि प्रत्येक भारतीय पर तकरीबन 1.16 लाख रुपए का कर्ज है।
लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश डिफ़ॉल्ट होते-होते रह गया है। दुनिया के इस सबसे ताकतवर देश की हकीकत यह है कि कुल कर्ज बढ़कर 31-46 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच चुका है। ऐसे में देखा जाए तो हर अमेरिकी पर 94000 डॉलर का कर्ज है।
हांलाकि हम अमेरिका से इंडिया की तुलना नहीं कर रहे हैं लेकिन यदि कर्ज के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो जहां प्रत्येक इंडियन पर मात्र 1402 डॉलर का कर्ज है, वहीं हर अमेरिकी नागरिक 94000 डॉलर के कर्ज में दबा पड़ा है। मतलब साफ है, एक अमेरिकी नागरिक एक भारतीय के मुकाबले सत्तर गुना ज्यादा कर्जदार है। चूंकि अमेरिका में सरकार के कर्ज लेने की भी एक सीमा निर्धारित की गई है, अर्थात नया कर्ज लेने के लिए मौजूदा सरकार को संसद से बिल पास कराना होता है। इस वजह से अमेरिकी इकॉनोमी की पोल खुली है।
ठीक इसके विपरीत यदि हम भारत की बात करें तो यहां की सरकारें शुरू से कर्ज लेकर घी पीने की नीति पर काम करती चली आ रही हैं। कर्ज लेने के बाद भारत की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था की भरपाई कौन करेगा इसकी चिंता किए बगैर तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियां सत्ता हासिल करने के लिए चुनाव के दौरान मुफ्त की रेवड़ियां बांटने से बाज नहीं आ रही हैं।
कुछ दशक पहले तक जनता केवल आश्वासन के भरोसे राजनीतिक पार्टियों को वोट दे देती थी। लेकिन मौजूदा दौर में जनता इतनी समझदार हो गई है कि राजनेताओं को मजबूर होकर रेवड़ियां बांटनी ही पड़ती है।
बतौर उदाहरण अभी हाल में चुनावी वादे के अनुसार कर्नाटक में महिलाएं बसों में टिकट खरीदने से मना कर रही हैं। जनता ने बिजली बिल देना बंद कर दिया है। यह भी सच है कि हमारे देश में चुनाव तो हर साल होते हैं, यदि एक बार विश्वास तोड़ा तो फिर जनता दोबारा विश्वास नहीं करती है। ऐसे में मुफ्त रेवड़ियां बांटने का एक दुष्चक्र सा निर्मित हो चुका है।
एक दूसरा उदाहरण, अभी इसी साल राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए वहां के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ऐलान किया है कि राज्य के हर घर को 100 यूनिट बिजली फ्री में मिलेगी।
अब जरा इस गणित को समझिए। मुफ्त की रेवड़ियों के लिए खर्च करने होंगे इसके लिए आय भी तो बढ़ानी ही होगी। यह बात सभी जानते हैं कि आय तो बढ़नी ही नहीं है, ऐसे में कर्ज ही लेना पड़ेगा और इस देश में कर्ज लेने की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। मतलब साफ है, एक हाथ से दिया और दूसरे हाथ से वापस लिया। यानि कर्ज का बोझ भी सीधा जनता पर पड़ेगा लेकिन अब जनता भी इस गणित को बखूबी समझने लगी है।
गौरतलब है कि देश का खजाना खिसक जाए, लेकिन राजनीतिक पार्टियों को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हां, वोट बैंक नहीं खिसकना चाहिए। अब आप भी समझ गए होंगे कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं।
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