कर्ज के बोझ तले बुरी तरह दबा है अमेरिका, फिर भी दुनिया पर कैसे राज करता है डॉलर ?

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इन दिनों अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए निगेटिव खबर आ रही है। दरअसल अभी हाल में ही अमेरिका के दो बड़े बैंक डूब चुके हैं और कई बैंक डूबने के कगार पर खड़े हैं। इसी आशंका में कुछ दिनों के अंदर ही लोगों ने अमेरिकी बैंकों से एक लाख करोड़ डॉलर से अधिक निकाल लिए। लिहाजा अमेरिकी बैंकों की हालत और ज्यादा खराब हो चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या डॉलर की कीमत दुनिया की अन्य करेंसी के मुकाबले गिर स​कती है? जबकि ठीक इसके विपरीत डॉलर अपनी स्थिरता बनाए हुए है।

बता दें कि अमेरिकी इकॉनामी के गिरते हालत के बावजूद डॉलर व्यापार चालान से लेकर विदेशी मुद्रा भंडार तक दुनियाभर में पसंदीदा मुद्रा बनी हुई है। तकरीबन 145 देशों के पास अभी दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडार का इकसठ फीसदी संपत्ति अभी भी डॉलर के रूप में मौजूद है। इतना ही नहीं वैश्विक मुद्रा व्यापार में खरीद/बिक्री अथवा लेन-देन के मामले में 90 फीसदी डॉलर का ही योगदान होता है।

दोस्तों, इन दिनों अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए निगेटिव खबर आ रही है। दरअसल अभी हाल में ही अमेरिका के दो बड़े बैंक डूब चुके हैं और कई बैंक डूबने के कगार पर खड़े हैं। इसी आशंका में कुछ दिनों के अंदर ही लोगों ने अमेरिकी बैंकों से एक लाख करोड़ डॉलर से अधिक निकाल लिए। लिहाजा अमेरिकी बैंकों की हालत और ज्यादा खराब हो चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या डॉलर की कीमत दुनिया की अन्य करेंसी के मुकाबले गिर स​कती है? जबकि ठीक इसके विपरीत डॉलर अपनी स्थिरता बनाए हुए है।

बता दें कि अमेरिकी इकॉनामी के गिरते हालत के बावजूद व्यापार चालान से लेकर विदेशी मुद्रा भंडार तक डॉलर दुनियाभर में पसंदीदा मुद्रा बनी हुई है। तकरीबन 145 देशों के पास दुनिया के विदेशी मुद्रा भंडार का इकसठ फीसदी संपत्ति अभी भी डॉलर के रूप में मौजूद है। इतना ही नहीं वैश्विक मुद्रा व्यापार में खरीद/बिक्री अथवा लेन-देन के मामले में 90 फीसदी डॉलर का ही योगदान होता है।

पिछले 50 वर्षों में डॉलर सबसे मजबूत करेंसी रही है। बावजूद इसके इन दिनों डॉलर के कमजोर होने की चर्चा काफी बढ़ गई है। अमेरिकी सरकार का कर्ज 31 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर है, जो अपने शीर्ष स्तर पर पहुंच चुका है। अमेरिकी कांग्रेस को इस क्षेत्र में और ज्यादा मंजूरी देने की जरूरत है ताकि सरकार और अधिक उधार ले सके। लेकिन यह जगजाहिर है कि कर्ज की सीमा में बढ़ोतरी को मंजूरी देने से पहले सत्ताधारी दल को विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी की कड़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा। अन्यथा सरकार को कानूनन अपने सभी खर्च बंद करने होंगे। यदि ऐसा हुआ तो अमेरिका की सरकारी व्यवस्था अधर में लटक सकती है या फिर ठप्प हो सकती है। हांलाकि ऐसा पहले भी हुआ है, जिसे सुलझा लिया गया था।

अमेरिकी सरकार दुनियाभर से उधार लेती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वैश्विक वित्तीय संस्थाएं अमेरिकी सरकार की लगातार बढ़ती कर्ज भूख को निधि देना जारी रखे हुए हैं। यह दुनियाभर में डॉलर की मांग का एक बड़ा स्रोत है और यही वजह है कि दुनिया करेंसी के रूप में डॉलर की आदी हो चुकी है।

सबसे कर्जदार देश अमेरिका को फंडिंग जारी रखने की इस तत्परता में यह विश्वास निहित है कि उनका कर्ज चुकाया जाएगा। सोचिए यदि अमेरिकी सरकार ने कर्ज चुकाने से अस्वीकार कर दिया तो क्या होगा? विशेषरूप से यह उनके साथ संभव है जो देश अमेरिका के राजनीतिक ​विरोधी खेमे में खड़े हैं। बतौर उदाहरण रूस और चीन डॉलर की संपत्ति से दूर जाने की कोशिश कर रहे हैं।

बता दें कि रूस ने डॉलर को छोड़कर अन्य करेंसी में भुगतान के जरिए तेल खरीदने के इच्छुक देशों को भारी छूट की पेशकश की है।  ऐसा ही एक देश है भारत जहां रूसी तेल का आयात तेजी से बढ़ा है। इन दिनों भारत में कच्चे तेल के दैनिक आयात का लगभग आधा हिस्सा रूस से आता है। अप्रैल से मार्च, 2022-23 के दौरान रूस से भारत का आयात 400% बढ़ गया। भारत ने रूस से तेल खरीद के लिए रुपये में भुगतान स्वीकार करने को कहा था।

हांलाकि रूस के पास रुपयों का अंबार लग गया है और अब ये उसके लिए समस्या बन गया है। चूँकि रूस के लिए रुपए को दूसरी करेंसी में बदलने की लागत बढ़ती जा रही है, इसलिए वो रुपए में पेमेंट लेने से इनकार कर रहा है। इतना ही नहीं रूसी रूपए में जारी व्यापार सौदे को रद्द कर रहे हैं। अब भारत को युआन या फिर यूरो या येन में भुगतान करना होगा। वास्तव में, बांग्लादेश भी रूसी तेल के लिए जापानी येन में भुगतान कर रहा है।

यह विदेशियों को रुपये के भुगतान को स्वीकार्य बनाने में एक बड़ी समस्या को दर्शाता है। पिछले साल 2022-23 में भारत का व्यापार घाटा 266 अरब डॉलर के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गया। यह पिछले वर्ष की तुलना में 40% की वृद्धि है। इतने बड़े व्यापार घाटे के साथ, यह उम्मीद की जा सकती है कि अमेरिका के आपूर्तिकर्ता देश अपनी मुद्रा में भुगतान प्राप्त करने पर जोर देंगे, ताकि अमेरिकी डॉलर पर अत्यधिक निर्भरता कम हो सके। जबकि बड़े व्यापार घाटे के बावजूद, अमेरिका बड़े पैमाने पर अपने आयात के लिए अपनी मुद्रा में भुगतान करना जारी रखता है। 

दुनिया के तमाम देश अमेरिका को अपने निर्यात के लिए डॉलर भुगतान स्वीकार करना जारी रखे हुए हैं। यही वजह है​ कि अमेरिकी मुद्रा डॉलर उन तमाम देशों के भंडार में अभी भी मौजूद है।  

हांलाकि यह हमेशा के लिए नहीं रहेगा क्योंकि चीनी दुनिया को युआन के अंतर्राष्ट्रीयकरण को स्वीकार करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। रूसियों को भी उस समय करारा झटका लगा जब अमरीकियों ने उनकी डॉलर संपत्तियों को सील कर दिया। अब रुपये के व्यापार को बढ़ाने के लिए भारत ने भी छोटे-छोटे कदम उठाए हैं और 18 देशों के साथ समझौता किया है। बावजूद इसके डॉलर का वर्चस्व कब खत्म होगा? इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है।

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