How Axiom 4 astronaut Shubhanshu Shukla will manage health in zero gravity details in hindi।ज़ीरो ग्रेविटी में शरीर कैसे ढलता है? जानिए एक्सिओम-4 मिशन में शुभांशु शुक्ला की चुनौतियां

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Manage Health in Zero Gravity : भारत के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला एक्सिओम-4 मिशन के साथ अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) पर जाने वाले दूसरे भारतीय बनने वाले हैं. बुधवार शाम 5:30 बजे उनका प्रक्षेपण हो चुका है. इस मिशन में वे 14 दिन तक अंतरिक्ष में रहेंगे और कई महत्वपूर्ण प्रयोगों में हिस्सा लेंगे. इन प्रयोगों में एक खास प्रयोग डयबिटीज़ से जुड़ा है, जिसका मकसद यह देखना है कि क्या डायबिटीज के मरीजों को भी भविष्य में अंतरिक्ष यात्रा की अनुमति दी जा सकती है?

लेकिन इस मिशन की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अंतरिक्ष में शरीर खुद को कैसे ढालेगा. ज़ीरो ग्रेविटी में शरीर की हर प्रणाली पर असर पड़ता है – चाहे वह दिल हो, हड्डियां हों, मांसपेशियां हों या आंखें.

अंतरिक्ष में शरीर कैसे करता है बदलाव?
अंतरिक्ष की यात्रा किसी भी इंसान के लिए एक नया अनुभव होता है. ग्रेविटी की कमी के कारण शरीर को कई बार अपने आप को नए माहौल में ढालने में समय लगता है.

1. शुरू की स्थिति: सिरदर्द और मतली
जब इंसान ज़ीरो ग्रेविटी वाले माहौल में पहुंचता है, तो उसका दिमाग कान और आंखों से मिली जानकारी को ठीक से समझ नहीं पाता. इसका नतीजा होता है – उल्टी, चक्कर और थकान जैसी तकलीफें. लेकिन आम तौर पर यह कुछ दिनों में ठीक हो जाती हैं.

2. शरीर में फ्लूड का ऊपर जाना
पृथ्वी पर शरीर का तरल पदार्थ नीचे की तरफ खिंचता है, लेकिन अंतरिक्ष में ये फ्लूड चेहरे और सिर की तरफ चले जाते हैं. इससे चेहरे पर सूजन आ सकती है और नाक बंद लग सकती है. बाद में शरीर खुद को एडजेस्ट कर लेता है.

3. वापसी पर शरीर की परेशानी
जब अंतरिक्ष यात्री वापस पृथ्वी पर लौटते हैं, तो खड़े होने में, चलने या नज़र स्थिर रखने में दिक्कत होती है. उन्हें चक्कर आने और कमजोरी महसूस होने की संभावना रहती है.

हड्डियों और मांसपेशियों का कमजोर होना
अंतरिक्ष में शरीर को वजन उठाने की ज़रूरत नहीं होती. इस वजह से मांसपेशियां कमजोर पड़ने लगती हैं और हड्डियों का घनत्व कम हो जाता है, खासकर रीढ़, पैर और कूल्हों में. इससे शरीर में खनिज का स्तर बढ़ जाता है और गुर्दे की पथरी की आशंका भी बन जाती है.

आंखों पर असर
ज़ीरो ग्रेविटी में आंखों की रचना भी बदलती है. रेटिना और नसों पर दबाव पड़ता है जिससे देखने में दिक्कत हो सकती है. इसे “स्पेस न्यूरो-ऑक्यूलर सिंड्रोम” कहा जाता है. यह समस्या ज़्यादातर अंतरिक्ष यात्रियों को होती है और लंबे समय तक रहने पर बढ़ जाती है.

दिल पर असर
अंतरिक्ष में दिल को खून पंप करने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती, इसलिए उसका आकार थोड़ा छोटा हो सकता है. जब यात्री वापस आते हैं, तो उनका दिल कमजोर होता है और रक्त प्रवाह सही नहीं रहता. इससे दिल की धड़कन अनियमित हो सकती है और दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है.

डायबिटीज पर नया शोध
इस मिशन में शुभांशु शुक्ला और उनकी टीम डायबिटीज से जुड़े एक प्रयोग पर काम करेंगे. इस प्रयोग में देखा जाएगा कि क्या इंसुलिन पर निर्भर लोग भविष्य में अंतरिक्ष यात्रा कर सकते हैं. इसके लिए निरंतर ग्लूकोज मॉनिटर (CGM) का प्रयोग किया जाएगा, ताकि अंतरिक्ष में शुगर के लेवल की मोनेटरिंग की जा सके.

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