क्या Eklavya गुरु द्रोण की शिक्षा के योग्य नहीं था।
गुरु द्रोणाचार्य परशुराम शिष्य थे , परशुराम स्वयं भगवान शिव के शिष्य थे। इस कारण से वह उस युग के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं में से एक थे। उनकी इस प्रतिभा और काबिलियत को ध्यान में रखते हुए ,उन्हें हस्तिनापुर के राजकुमारों को शस्त्र कला और युद्धनीति सिखाने के लिए नियुक्त किया गया था।
अच्छा, तो अब बात आती है की क्या यह अन्याय नहीं है की उन्हें सिर्फ राजकुमारो को पढ़ने के हेतु से नियुक्त किया गया ?. तो इस बात का सीधा- सीधा जवाब यह है की उन दिनों द्रोणाचार्य जब शिक्षा दे रहे थे तो वह कोई सामान्य शिक्षा नहीं थी। वह बहुत ही शक्तिशाली दिव्यास्त्र के ज्ञानी थे। ऐसे अस्त्र जो पलक झपकते ही पूरी सृष्टि का विनाश कर सकते थे। इसलिए , बहुत ज़रूरी था की शिक्षा देने से पहले शिक्षा प्राप्त करने वाले के चरित्र के बारे में निश्चित तौर पे पता लगाया जाये । यह कितना संजीदा पहलु है महाभारत का यह इस बात से समझा जा सकता है की गुरु द्रोण ने ब्रह्मास्त्र को वापिस बुलाना सभी राजकुमारों में से सिर्फ अर्जुन को सिखाया था ,यहाँ तक की खुद के पुत्र जिसे वह सबसे ज़्यादा स्नेह करते है उसे भी नहीं। ऐसा उन्होंने पक्षपात के उद्देश्य से नहीं किया था बल्कि इसलिए किया क्योंकि वह जानते थे कि अश्वत्थामा की तुलना में अर्जुन अधिक संवेदनशील है , वह इस अस्त्र का दुरुपयोग नहीं करेगा , और ब्रह्मास्त्र वापस बुलाना यदि कोई सिख गया तो वह इसका उपयोग बार -बार कर है. इसलिए यह बोहोत ज़रूरी है की सही पात्र को सिखाया जाये।
अब बात करते है Eklavya की , तो जैसे कि हमने आपको बताया की गुरु द्रोण की शिक्षा कोई साधारण शिक्षा नहीं थी, और इसका गलत हाथो में जाना कितना विनाशकारी हो सकता है। आपको बता दे की एकलव्य कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। उसके पिता निषाद नरेश हिरण्यधनु , हस्तिनापुर के शत्रु देश मगध के सेनापति थे। इसलिए उनकी निष्ठा मगध नरेश जरासंध के प्रति थी। जरासंध ने मथुरा नरेश कंस के बाहुबल से खुश होकर अपनी दोनों पुत्रियों का विवाह कंश से करवाया था किन्तु कृष्ण हाथों कंस वध हुआ और उसकी पुत्रिया विधवा हुई । इसी कारणवश वह मथुरा का भी दुश्मन बन बैठा था।
इस खतरे को गुरु द्रोण बहुत ही अच्छे से भाप चुके थे वह जानते थे की जरासंध जैसे दुश्मन से लोहा लेने वैसे भी बहुत कार्य है ऊपर से एकलव्य जैसा योद्धा हस्तिनापुर के लिए विनाशकारी हो सकता है। इसलिए उन्होंने Eklavya से उसका अंगूठा मांग कर उसकी शक्ति को सीमित कर दिया।
यदि गुरु द्रोण को पक्षपात करना होता, और उन्हें अर्जुन की काबिलियत पर भरोसा न होता तो वह एकलव्य से उसका जीवन मांगते या फिर कारण की भांति चुपके से उनकी आज्ञा बिना शिक्षा चुराने के दंड स्वरूप उसे श्राप दे देते किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। एकलव्य के अंगूठे को माँगकर उन्होंने अर्जुनकी शिक्षा पूर्ण करने की लिए समय पर्पट कर लिया क्यूंकि एकलव्य अर्जुन से बड़ा था। वह जानते थी की अंगूठे के बिना धनुर्विद्या सीखने में एकलव्य लगेगा और इसी वक्त में वः अर्जुन को इस काबिल बना सकेंगे की वः हस्तिनापुर की रक्षा मगध विरुद्ध कर पाए। आगे जाकर ऐसा हुआ भी , एकलव्य ने बिना अंगूठे के भी धनुर्विद्या में महारत हासिल की और जरासंध की सेना में स्वयं श्री कृष्णा के विरुद्ध युद्ध किया। कहते है की स्वयं श्री कृष्ण भी एकलव्य का अद्वित्य पराक्रम देखकर खुश हुए और उन्हें भी एकलव्य का वध करने के लिए सुदर्शन चक्र का उपयोग करना पड़ा। गुरु द्रोण की इस गुरु दक्षिणा की वजह से आज एकलव्य एक महान शिष्य के रूप में याद रखा जाता है न की केवल जरासंध के एक सेनापति के रूप में जिसने अधर्म के पक्ष में युद्ध क्र श्री कृष्ण के हाथो मृत्यु प्राप्त की।
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