सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद् medha पाटकर एक बार फिर कानूनी पचड़े में फंस गई हैं। दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें मानहानि के मामले में दोषी ठहराया है जो 22 साल पहले तत्कालीन एनजीओ प्रमुख और वर्तमान दिल्ली के उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना ने उनके खिलाफ दायर किया था। क्या यह फैसला पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सत्ता में बैठे लोगों के बीच टकराव का संकेत है, या यह केवल एक व्यक्तिगत कानूनी विवाद है? आइये इसे समझते है। नमस्कार, आप AIRR न्यूज़ देख रहे हैं।-Digital Development update
दिल्ली की एक अदालत ने शुक्रवार को नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता medha पाटकर को उनके खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी के वर्तमान उपराज्यपाल वी.के. सक्सेना द्वारा दायर मानहानि के मामले में दोषी ठहराया है।-Digital Development update
मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट राघव शर्मा ने पाटकर को आपराधिक मानहानि का दोषी पाया।
संबंधित कानून के तहत, कार्यकर्ता को दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों सजा के रूप में मिल सकता है।
आपको बता दे की पाटकर और सक्सेना के बीच 2000 से ही कानूनी लड़ाई में चल रही हैं, जब उन्होंने उनके और नर्मदा बचाओ आंदोलन के खिलाफ विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए उनके खिलाफ मुकदमा दायर किया था।
सक्सेना उस समय अहमदाबाद स्थित एनजीओ नेशनल काउंसिल फॉर सिविल लिबर्टीज के प्रमुख थे।
सक्सेना ने उनके खिलाफ टीवी चैनल पर उनके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने और मानहानिकारक प्रेस बयान जारी करने के लिए दो मामले भी दायर किए थे।
बाकि दिल्ली की अदालत द्वारा medha पाटकर को दोषी ठहराए जाने का मामला कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है।
क्या यह फैसला पर्यावरण कार्यकर्ताओं को चुप कराने के लिए सत्ता में बैठे लोगों द्वारा दमन का संकेत है? पाटकर दशकों से नर्मदा बचाओ आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं, और वह बांधों और अन्य बड़े विकास परियोजनाओं के खिलाफ एक मुखर आवाज रही हैं।
क्या यह फैसला स्वतंत्र भाषण की सीमाओं पर सवाल उठाता है?
पाटकर पर अपने आलोचकों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए आरोप लगाया गया है, लेकिन कुछ लोगों का तर्क है कि उनकी टिप्पणियाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संरक्षित दायरे के भीतर थीं।
क्या पाटकर बनाम सक्सेना केस व्यक्तिगत झगड़ों से परे सार्वजनिक हित के मामलों पर प्रकाश डालता है? पाटकर जल और भूमि अधिकारों की एक मजबूत समर्थक हैं, जबकि सक्सेना एक पूर्व पुलिस अधिकारी हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों का नेतृत्व किया है।-Digital Development update
वैसे पाटकर बनाम सक्सेना का मामला भारत में पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सत्ता में बैठे लोगों के बीच टकराव का एक लंबा इतिहास रखता है।
1979 का चिपको आंदोलन जिसमे पेड़ों की कटाई के विरोध में पर्यावरण कार्यकर्ताओं और वन अधिकारियों के बीच टकराव को चिह्नित किया।
वही 1989 का नर्मदा बचाओ आंदोलन जिसकी स्थापना बड़े बांध परियोजनाओं के विरोध में की गई थी, जिसके कारण पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सरकार के बीच संघर्ष हुआ।
मौजूदा परिवेश में 2000 में medha पाटकर को गुजरात सरकार द्वारा गिरफ्तार किया गया था और उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत आरोप लगाया गया था।
आपको बता दे की दिल्ली की एक अदालत द्वारा medha पाटकर को दोषी ठहराया जाना सामाजिक कार्यकर्ताओं और सत्ता में बैठे लोगों के बीच टकराव के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण घटना है। यह भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल और उनके शासन पर इसके प्रभाव के दौरान इस तरह की अन्य घटनाओं के पैटर्न का हिस्सा है।
मोदी के कार्यकाल के दौरान सामाजिक कार्यकर्ताओं और अन्य आलोचकों पर हमलों की कई अन्य घटनाएँ हुई हैं।
जैसे 2015 में पर्यावरण कार्यकर्ता अरुण फरेरा को महाराष्ट्र सरकार ने गिरफ्तार किया था, कथित तौर पर नक्सलियों से संबंधों के आरोप में। उन्हें बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया।-Digital Development update
इसी तरह 2016 में सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया था और उन पर 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित एक मामले में सबूत गढ़ने का आरोप लगाया गया था। वह वर्तमान में जमानत पर बाहर हैं।
वैसे ही 2018 में मानवाधिकार वकील सुधा भारद्वाज को कथित माओवादी संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें 2021 में जमानत पर रिहा कर दिया गया।
2020 में कश्मीरी पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार रक्षक गौहर गिलानी को राष्ट्रीय जांच एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किया गया था, कथित तौर पर आतंकवादी समूहों से संबंधित होने के आरोप में। उन्हें बाद में जमानत पर रिहा कर दिया गया।
इन मामलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं पर लगाए गए आरोपों में देशद्रोह, आतंकवाद और सबूत गढ़ना शामिल है। इन आरोपों का उनके काम पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, जिससे उनके लिए असहमतिपूर्ण आवाज़ उठाना मुश्किल हो गया है।
आलोचकों का तर्क है कि इन गिरफ्तारियों और मामलों का उपयोग सरकार द्वारा असहमति को दबाने और नागरिक समाज पर चिलिंग प्रभाव पैदा करने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने इस तथ्य की ओर भी इशारा किया है कि इन मामलों में से कई में सामाजिक कार्यकर्ताओं को अंततः बरी कर दिया गया है या जमानत पर रिहा कर दिया गया है, जिससे पता चलता है कि उनके खिलाफ आरोप राजनीति से प्रेरित थे।
मोदी सरकार ने इन गिरफ्तारियों और मामलों का बचाव करते हुए तर्क दिया है कि वे कानून के अनुसार किए गए हैं और इनका असहमति को दबाने से कोई लेना-देना नहीं है। सरकार ने यह भी कहा है कि वह नागरिक समाज की भूमिका का सम्मान करती है और उन समूहों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी जो कानून के दायरे में काम कर रहे हैं।
तो इस तरह हमने जाना की दिल्ली की एक अदालत द्वारा medha पाटकर को दोषी ठहराना भारत में सामाजिक कार्यकर्ताओं और अन्य आलोचकों पर हमलों की एक श्रृंखला में नवीनतम है। इन मामलों ने नागरिक समाज पर सरकार द्वारा दमन की चिंताओं को जन्म दिया है, और स्वतंत्र भाषण और असहमति के अधिकार के बारे में गंभीर प्रश्न उठाते हैं।
और साथ ही जाना की यह मामला पर्यावरण कार्यकर्ताओं और सत्ता में बैठे लोगों के बीच टकराव की निरंतर प्रवृत्ति को उजागर करता है। यह फैसला स्वतंत्र भाषण की सीमाओं और व्यक्तिगत झगड़ों और सार्वजनिक हित के मामलों के बीच संबंध के बारे में भी प्रश्न उठाता है। जबकि पाटकर बनाम सक्सेना का मामला व्यक्तिगत कानूनी विवाद हो सकता है, यह पर्यावरण संरक्षण और लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भूमिका के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्नों पर प्रकाश डालता है।
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