यूनिवर्सिटी ऑफ डेनमार्क की अनगिनत अलमारियों में 37 वर्षों से इकट्ठे किए हुए 9,479 मानव मस्तिष्क स्टोर करके रखे हुए हैं। ये मस्तिष्क मानसिक रोगियों के हैंए जिनका संग्रह करीब 1945 से 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में किया गया। यूनिवर्सिटी में रखे गए ये मस्तिष्क मानसिक रोगियों की मौत के बाद उनके शव से निकाले गए थे। इन मस्तिष्कों को सफेद रंग की फार्मेलिन की बाल्टियों में जमा करके रखा गया है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, ब्रेन कलेक्शन के प्रमुख पैथालॉजिस्ट मार्टिन विरेनफेल नीलसेन का कहना है कि इस प्रक्रिया को ऑटोप्सी के बाद पूरा किया जाता है। इस जांच को भी सुरक्षित तरीके से रखा गया है। डेनिश एथिक्स काउंसिल ने साल 1990 में यह निर्णय लिया कि यूनिवर्सिटी में संग्रहित इन मस्तिष्कों का इस्तेमाल केवल रिसर्च के लिए किया जाएगा। इस दौरान कहा गया कि मानसिक बीमारियों के अध्ययन में यह मददगार साबित होगा। हाल के वर्षों में इसका परिणाम यह देखने को मिला है कि स्टोर किए गए इन मस्तिष्कों के अध्ययन से डिमेंशिया और डिप्रेशन समेत कई बीमारियों को समझने में मदद मिली है।
यह बात सुनकर आपको भी हैरानी हो रही होगी कि आखिर दुनिया में ऐसी कौन सी जगह है जहां तकरीबन दस हजार लोगों के मस्तिष्क निकालकर रखे हुए हैं। जी हां, अब आप यह भी सोच रहे होंगे कि आखिर इतने ज्यादा मस्तिष्क स्टोर करने की वजह क्या है?
बता दें कि यूनिवर्सिटी ऑफ डेनमार्क की अनगिनत अलमारियों में 37 वर्षों से इकट्ठे किए हुए 9,479 मानव मस्तिष्क स्टोर करके रखे हुए हैं। ये मस्तिष्क मानसिक रोगियों के हैं, जिनका संग्रह करीब 1945 से 1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में किया गया। यूनिवर्सिटी में रखे गए ये मस्तिष्क मानसिक रोगियों की मौत के बाद उनके शव से निकाले गए थे। इन मस्तिष्कों को सफेद रंग की फार्मेलिन की बाल्टियों में जमा करके रखा गया है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, ब्रेन कलेक्शन के प्रमुख पैथालॉजिस्ट मार्टिन विरेनफेल नीलसेन का कहना है कि इस प्रक्रिया को ऑटोप्सी (पोस्टमार्टम परीक्षण) के बाद पूरा किया जाता है। इस जांच को भी सुरक्षित तरीके से रखा गया है। मार्टिन विरेनफेल नीलसेन तर्क देते हुए कहते हैं कि संभव है आज से 50 साल बाद या फिर उससे भी ज्यादा वक्त के बाद कोई आएगा जो हमसे ज्यादा जानता होगा।
आज की तारीख में भी मेंटल हेल्थ यानि न्यूरोलॉजी विषयक चर्चाएं जोर पकड़ चुकी हैं लेकिन पिछले के दशकों में ऐसा नहीं था। रिपोर्ट में हैरान कर देने वाला सच यह है कि डेनमार्क के मनोविज्ञान संस्थानों में मानसिक रोगियों के मस्तिष्क उनकी मौत के बाद बिना किसी परमिशन के निकाल लिए गए थे।
यहां के इतिहासकारों का कहना है कि इस मामले पर किसी ने भी सवाल नहीं उठाया कि आखिर इन संस्थानों में क्या हुआ होगा।चूंकि मानसिक बीमारी से पीड़ित लोगों के पास काफी कम अधिकार थे, ऐसे में उनका इलाक उनकी मर्जी के बिना किसी भी तरीके से हो सकता था। डेनिश एथिक्स काउंसिल ने साल 1990 में यह निर्णय लिया कि यूनिवर्सिटी में संग्रहित इन मस्तिष्कों का इस्तेमाल केवल रिसर्च के लिए किया जाएगा। इस दौरान कहा गया कि मानसिक बीमारियों के अध्ययन में यह मददगार साबित होगा।
हाल के वर्षों में इसका परिणाम यह देखने को मिला है कि स्टोर किए गए इन मस्तिष्कों के अध्ययन से डिमेंशिया और डिप्रेशन समेत कई बीमारियों को समझने में मदद मिली है। वर्तमान में इस यूनिवर्सिटी में मानसिक बीमारियों से जुड़े चार प्रोजेक्ट पर जोरों से काम चल रहा है। जिनके लिए स्टोर किए गए मस्तिष्क काफी मददगार साबित हो रहे हैं। इन शोधों से यह भी जानने में मदद मिल रहा है कि मानव मस्तिष्क में अभी तक कितना परिवर्तन आया है।
संग्रह के निदेशक का कहना है कि अब लोगों ने बहस करने की जगह यह कहना शुरू कर दिया है कि यदि आप मानसिक रोग और रोगियों के बारे में अधिक जानना चाहते हैं तो यह बहुत प्रभावशाली और उपयोगी वैज्ञानिक शोध है।