Goa’s Post-Independence: Portuguese Rule & Freedom Struggle

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स्वतंत्रता के बाद भी गोवा पर था पुर्तगा​लियों का शासन, जानिए किसने दिलाई आजादी?

आपको जानकारी के लिए बता दें कि सन 1510 से ही गोवा पर पुर्तगालियों का शासन शुरू हो गया था, इसके बाद तकरीबन 451 वर्षों तक गोवा के लोगों को गुलामी झेलनी पड़ी। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि बँटवारे और भयावह सांप्रदायिक हिंसा के बाद भारत को आज़ादी मिल गई लेकिन गोवा पुर्तगाल के ही कब्ज़े में रहा। गोवा को आजादी मिली लेकिन भारत के आजाद होने के साढ़े 14 साल बाद यानि 19 दिसम्बर 1961 को गोवा पुर्तगालियों के शिकंजे से मुक्त हो गया।

इस स्टोरी हम आपको बताने जा रहे हैं कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के किस सत्याग्रही के अथक प्रयासों और त्याग से गोवा को आजाद कराया जा सका। दरअसल सन 1946 में ही यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि अब अंग्रेज भारत में अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएंगे। ऐसे में हमारे राजनेताओं को भी ऐसा लग रहा था कि अंग्रेजों के साथ-साथ पुर्तगाली भी गोवा छोड़कर चले जाएंगे। हांलाकि इन राष्ट्रीय नेताओं में से एक ख्यातिलब्ध समाजवादी महापुरूष डॉ. राम मनोहर लोहिया इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते थे।

गोवा की मुक्ति की पहली नींव डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ही रखी। अपने मित्र डॉक्टर जूलियाओ मेनेज़ेस के निमंत्रण पर लोहिया जी गोवा गए और डॉ. मेनेजस के घर पर रूके। उन दिनों पुर्तगालियों ने किसी भी तरह की सार्वजनिक सभा पर रोक लगा रखी थी। बावजूद इसके डॉ. राम मनोहर लोहिया ने तकरीबन 200 लोगों को एकत्र करके एक बैठक की, जिसमें तय किया गया कि नागरिक अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़ा जाए। तेज बारिश के बावजूद उन्होंने जनसभा को संबोधित किया और पुर्तगाली दमन के विरोध में अपनी आवाज बुलंद की लिहाजा उन्हें गिरफ्तार करके मडगांव के जेल में कैद कर लिया गया। 

लो​हिया की गिरफ़्तारी पर महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ में लेख लिखकर पुर्तगाली सरकार की कड़ी आलोचना की। राजनीतिक माहौल गरमाता देखकर पुर्तगाली सरकार ने डॉ. लो​हिया को गोवा की सीमा के बाहर ले जाकर छोड़ दिया। हांलाकि डॉ. लोहिया के गोवा में प्रवेश पर पांच साल का प्रतिबंध लगा दिया गया। डॉक्टर लोहिया के कई युवा समाजवादी शिष्य भी गोवा की आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़े थे। इनमें से एक प्रमुख नाम है मधु लिमये जो गोवा की आजादी के लिए दो साल पुर्तगाली जेल में कैद रहे। उन दिनों गोवा की जेल सत्याग्रहियों से भर चुकी थी। इतना सब कुछ होने के बाद गोवा के लोगों में आजादी की भावना उबलने लगी थी। 

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षामंत्री कृष्ण मेनन के आग्रह के बाद भी पुर्तगाली गोवा छोड़ने को तैयार नहीं थे, लिहाजा भारत सरकार ने गोवा पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। इसके बावजूद भी पुर्तगाल सरकार ने नीदरलैंड्स से आलू, पुर्तगाल से वाइन, पाकिस्तान से चावल और सब्ज़ियां और श्रीलंका (तब सीलोन) से चाय भेजी जाने लगी थी।

पुर्तगाल सरकार के रवैये को देखते हुए आखिरकार भारत सरकार को कड़ा रूख अपनाना ही पड़ा। भारत सरकार द्वारा ‘आपरेशन विजय’ के तहत 30 हज़ार सैनिकों को गोवा भेजने का निर्णय लिया गया जिसमें थल सेना के साथ वायुसेना और नौसेना भी शामिल थी।

भारतीय वायु सेना ने 8 और 9 दिसम्बर को पुर्तगालियों के ठिकानों पर बमबारी की। मेजर जनरल के.पी. कैंडेथ के नेतृत्व में इन्फैंट्री डिवीजन और पैरा ब्रिगेड ने हमले तेज कर दिए। हांलाकि सैन्य अभियान में कई भारतीय सैनिक और पुर्तगाली भी मारे गए। आखिरकार 19 दिसम्बर 1961 को तत्कालीन पुर्तगाली गर्वनर मैन्यू वासलो डे सिल्वा ने भारत के सामने सरेंडर कर दिया। ऐसे में गोवा के साथ-साथ उसके अधीनस्थ क्षेत्र दीमन और दीव भी आजाद हो गए।  

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