शरीर ही ब्रह्माण्ड – सौम्यता है ब्रह्म वाचक | Patrika Editor In Chief Gulab Kothari Special Article On 10th May Sharir Hi Brahmand Gentleness is Brahma Vachak

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यह साकार भाव ही माया रूप में आगे बढ़ता है। इसी के केन्द्र में ब्रह्म की कामना आहुत होती है। ब्रह्म और कामना दोनों सोम हैं। ब्रह्म बीज है, कामना ही मन का बीज है। ब्रह्म अकर्ता होते हुए भी उसकी कामना कर्म का कारक बनती है। बीज निष्काम है। इसका वपन कामना पर आधारित होता है। कामना स्वयं ऋत भाव में होती है। इसके मूल में भी ज्ञान (ब्रह्म) ही है। सबका बीज होने से गॉड पार्टिकल कहलाता है। माया अपनी भिन्न-भिन्न आकृतियों में इसे आवरित करके रखती है। यही माया की आंख-मिचौनी है। प्रत्येक आकृति के केन्द्र में निराकार ब्रह्म है। ब्रह्म के चारों ओर माया है। आकृति है, जो पुन: परमेष्ठी सोम से आवरित है। अग्नि की जीवन रेखा सोम है- जो उसे जीवित रखता है। अग्नि उत्पन्न ही सोम की कामना पूर्ति के लिए हुआ। ब्रह्म पुरुष है- ऋत है- बीज है, तो माया स्त्री है, अग्नि है, सत्य है। अग्नि-सोम साथ ही रहते हैं। यही दाम्पत्य भाव है। आत्मा पुरुष है, माया स्त्री रूपा।


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शरीर ही ब्रह्माण्ड– पुरुष भी स्त्रैण है

ब्रह्म और माया का निष्क्रिय सहचर भाव परात्पर है। इन्हीं के मध्य कामना और कर्म उत्पन्न होकर केन्द्र रूप अव्यक्त बनता है। यही आगे अव्यय पुरुष रूप में सृष्टि का आलम्बन (अकर्ता) बनता है। दिखाई नहीं देता। सम्पूर्ण सृष्टि-साकार-मायाभाव- स्त्रैण है। ब्रह्म की कामना को मूर्त रूप देने के लिए उसे कामना के प्रत्येक पहलू का अध्ययन करना पड़ता है। पूर्ण जाग्रत-पूर्ण दक्ष-चिन्तन/मननशील होना पड़ता है। ब्रह्म निष्कर्म होने से शून्य रूप होता है। माया के कार्य-कलापों से भी अनभिज्ञ होता है। ब्रह्म अब तक किसी भी रूप में माया को नहीं समझ पाया। उसके मन में तो एक ही नशा छाया होता है—एकोऽहं बहुस्याम् प्रजायेत्। यही इच्छा सबके मन में उठती है- एकोहं बहुस्याम्। सबके हृदय में ईश्वर जो बैठा है। पिछले अनेक जन्मों में लाखों जीवात्मा से आदान-प्रदान होता रहा है, वे आज जिस भी शरीर में हैं व्यक्ति को आकर्षित करेंगे। यह भी चंचलता का (मन की) एक प्रधान कारण है। कृष्ण स्वीकारते हैं कि मन चंचल है, कठिनता से वश में आता है। यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है-

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। (गीता 6.35)
सबकुछ दिख रहा उल्टा-पुल्टा। ब्रह्म के विवर्त में ब्रह्म कहीं दिखाई ही नहीं देता। पुरुष शरीर हो अथवा स्त्री शरीर, दोनों ही अग्नि रूप हैं। पुरुष शरीर में अग्नि प्रधान है, स्त्री शरीर में सोमप्रधान है। पुरुष शरीर में भीतर सोम है, जहां ब्रह्म की प्रतिष्ठा है। अन्न और मन के माध्यम से चन्द्रमा ही सोम का अधिष्ठाता है। सोम ही कामना है। कामना का जनक होने से सोम की एक संज्ञा पति है। सोम स्नातक कहलाता है। स्त्री का सौम्य स्वरूप पुरुषाग्नि में आहुत होकर भीतर को जाता है। सम्पूर्ण शरीर से सोम एकत्र करके धातु क्रम के अन्त में शुक्र रूप एकत्र होता है। यही शुक्र सोम पुन: स्त्री शरीर में लौटता है- अग्नि रूप में वेदी में आहुत होने। हवि रूप में इसका प्रोक्षण* होता है। ”हे सन्तान! मैं तुझे अपने कुल-संकल्प रूप अग्नि के निमित्त करके सेचन करता हूं (गर्भाधान)।‘’ प्रत्येक सन्तान किसी उद्देश्य से उत्पन्न होनी चाहिए। वही उद्देश्य उसका देवता है। गर्भाधान पूर्व माता-पिता को इस योग्य होना चाहिए कि वे घोषणा कर सकें कि वे किस देवता को, किस उद्देश्य के लिए बुला रहे हैं। इस संकल्प में सुक्षिता* स्त्रियों का पूर्ण सहयोग आवश्यक है। यह यज्ञ उत्तम सन्तान के लिए किया जाता है।

इस यज्ञ के द्वारा सोम पुन: स्त्री शरीर में आहुत होकर आगे बढ़ जाता है। मातरिश्वा वायु इसे पुन: अग्नि (डिम्ब) में आहुत करता है। जल्दी किसको है आहुत होने की। ब्रह्म को! उसी का तो सपना है- एकोऽहं बहुस्याम्। अग्नि को देखते ही घुटने टेक देता है। पुुरुष शरीर से अग्नि है, शुक्र रूप से सोम है, किन्तु आत्मा से सौम्य नहीं है। अत: आग्नेय शरीर आहुत होकर शरीर का निर्माण कर देता है। परिणामत: अहंकृति और आकृति पूर्णरूप से आहुत हो जाते हैं, प्रकृति की पूर्णाहुति नहीं होती। जीवात्मा की प्रकृति पिछले जन्म की अथवा अल्पतम नई बनती है। तब उसमें भी सौम्यता का अभाव रहता है। क्योंकि शुक्र में भी अभाव था।

शरीर पंचभूतात्मक है। पांचवा महाभूत पृथ्वी- शरीर ही है, जिसकी उत्पत्ति जल से होती है। जिस प्रकार जल से बुद्बुद्-फेन-मृदा आदि का निर्माण होकर अन्त में हिरण्य बनता है, उसी प्रकार शुक्र-शोणित से कलल-बुद्बुद् आदि का निर्माण होकर अन्त में सम्पूर्ण शरीर निर्मित हो जाता है। उसी के ऊपर चितेनिधेय की प्रतिष्ठा रहती है। पंचभूत जड़ तत्त्व हैं, अत: देह भी जड़ है। मूल में स्त्री भी देह ही है- बीज नहीं होने से।

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मां का खाया अन्न शिशु शरीर की सामग्री बनता है। अन्न से माता-शिशु दोनों के मन का निर्माण होता है। आहार के साथ-साथ यदि माता अपने मन से भी शिशु मन का पोषण करती रहे, तो शिशु के मन की सौम्यता की पूर्ति होती जाएगी। ब्रह्म तो सौम्य ही रहेगा, निराकार ही रहेगा, सृष्टि से निर्लिप्त ही होगा। माया की सृष्टि के बाहर भी सोम है, भीतर भी सोम है। अत: सोम में लीन होने के लिए प्राणी की सौम्यता मूल सिद्धान्त है।

संतति यज्ञ में पिता बीज प्रदाता है। बीज के पल्लवन व पोषण का दायित्व मां की झोली में है। स्त्री शरीर की दैहिक सौम्यता ब्रह्म वाचक है, रसात्मक है। भीतर का आग्नेय भाग आग्नेय वेदी-सृष्टि निर्मात्री का स्वरूप है। पुरुष सृष्टि बीज होने से सृष्टि का मूलाधार बनता है। उसी का स्वामित्व दिखाई पड़ता है। आग्नेय रूप में, आकृत वही माया भाव है। ब्रह्म उस शरीर के भीतर है। उसका प्रवाह यदि तेज हैं तो चेहरे पर सौम्यता प्रकट हो जाएगी। वह भी रसमय हो जाएगा।

क्रमश: gulabkothari@epatrika.com प्रोक्षण = छिड़काव
सुक्षिता = प्रेरणा देने वाली



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