लोकसभा चुनाव-2024: क्या भाजपा के सामने सरेंडर कर चुकी है बसपा?

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बसपा सुप्रीमो मायावती यूपी जैसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी​ हैं। बता दें कि मायावती ने साल 1995, 1997 और 2002 में बीजेपी के समर्थन से ही सरकार बनाई, लेकिन उनकी सरकार गिराने का काम भी भाजपा ने ही किया। ऐसे में बसपा के सियासी उत्थान और पतन दोनों ही किरदार में बीजेपी को दरकिनार नहीं किया जा सकता है। 

यह सत्य है कि लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से मायावती कई मुद्दों पर भाजपा सरकार का समर्थन करती दिखी हैं। इतना ही नहीं समाजवादी पार्टी कई बार बसपा को भाजपा की बी टीम कह चुकी है। आपको याद दिला दें कि लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी को यूपी की कुल 80 सीटों में 62 पर कामयाबी मिली थी। जबकि  2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन था लिहाजा बसपा ने 10 सीटों पर तथा सपा ने 5 सीटों पर विजयश्री हासिल की थी। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद मायावती ने चुनाव नतीजों पर असंतोष व्यक्त करते हुए सपा से गठबंधन तोड़ लिया। 2019 के लोकसभा चुनाव से उपजे असंतोष के बाद मायावती ने घोषणा की थी कि बसपा भविष्य में कभी भी सपा के साथ चुनाव नहीं लड़ेगी। 

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यहां तक कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भी मायावती निष्क्रिय बनी रहीं, लिहाजा महज एक सीट से संतोष करना पड़ा। बसपा को सिर्फ़ 12.7 फ़ीसद वोट ही मिले। ऐसे में सपा और कांग्रेस ने मायावती पर आरोप लगाए कि बसपा ने भाजपा के साथ गुप्त समझौता कर रखा है। यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में भाजपा को 255 सीटों पर जीत मिली थी।

अभी हाल में ही सूबे के 17 नगर निगमों के महापौर के चुनाव में बसपा ने सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिनमें 11 मुस्लिम थे। ऐसे में जहां बीजेपी ने सभी 17 सीटों पर जीत दर्ज की वहीं सपा-बसपा दोनों का सूपड़ा साफ हो गया। महापौर चुनाव को लेकर सपा प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी  ने बयान दिया है कि बसपा का एकमात्र मकसद चुनावों में बीजेपी की मदद करना रह गया है।  

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मायावती ने पिछले महीने 5 अप्रैल को तीन ट्वीट किए जो पूरी तरह से सपा को कमजोर करने वाले और कहीं ना कहीं बीजेपी को फायदा पहुंचाने वाले नजर आ रहे हैं। मायावती अपने पहले ट्वीट में लिखती हैं कि यूपी के विकास और और जनहित के मुद्दों के बजाय जातिवाद और अनर्गल द्वेष से परिपूर्ण मुद्दों की राजनीति करना ही सपा का स्वभाव रहा है। इतना ही नहीं आजकल रामचरितमानस विवाद वाले सपा नेता पर मुकदमा होने की खबर सुर्खियों में है। मायावती का ट्वीट नंबर-2, 1993 में सपा-बसपा गठबंधन मिशनरी भावना के तहत हुआ था लेकिन सपा मुखिया मुलायम सिंह की नियत दलित उत्पीड़न और बसपा को बदनाम करने की थी। मायावती ने अपने तीसरे ट्वीट में लिखा कि अयोध्या, श्रीराम मंदिर और अपरकास्ट को लेकर जिन नारों को प्रचारित किया गया, वह बसपा को बदनाम करने की सपा की सोची-समझी साजिश थी। इतना ही नहीं दलित, अन्य पिछड़ों के साथ अब मुस्लिम समाज को भी सावधान रहने की जरूरत है।

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बता दें कि पिछले तीन चुनावों से बसपा का जनाधार लगातार सिकुड़ता चला गया। बहन मायावती का हाथी दिल्ली तो क्या लखनऊ जाने की स्थिति में भी नहीं रह गया। दलित और अति पिछड़ी जातियों का जो वोट बैंक जो कभी बसपा का था, कहीं ना कहीं भाजपा से प्रभावित दिख रहा  है। मुस्लिम समुदाय का बसपा से बहुत पहले ही मोहभंग हो चुका है, यहां तक कि सपा से भी दूरियां दिखने लगी हैं। ऐसे में मुस्लिम वोटों का झुकाव इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ हो सकता है।

बसपा सुप्रीमों मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता इस बात की द्योतक है कि बिना सपा के गठबंधन के बसपा लोकसभा चुनाव 2024 में 10 सीटें भी नहीं जीत पाएगी और विधानसभा की तरह लोकसभा में भी बसपा पूरी तरह से साफ हो जाएगी। बसपा की राजनीतिक निष्क्रियता का फायदा उठाकर बीजेपी 80 में से 75 सीटों पर जीत हासिल करने की कोशिश करेगी। 

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव 2024  के होने में अभी एक साल का समय है, ऐसे में यदि बसपा ने इस बार मजबूत स्टैंड नहीं लिया तो सूबे के दलित और वंचित तबक़े के लोग गहरी निराशा और बिखराव के रास्ते पर चले जाएंगे और फिर बसपा का वजूद खतरे में पड़ जाएगा। 

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